गीत कितने हैं उपजते,
छोड़कर पर दूर जाते 
साधने में छंद, शब्दों के 
झमेले रूठ जाते 
दिन मुड़े ही जा रहे हैं 
गान अपना गा रहे हैं।
और कितनी गीत की फसलें 
नई सी उग रही हैं 
ऐडियों पर कुछ उचक कर 
आसमाँ को छू रही हैं 
हम तके ही जा रहे हैं 
गान अपना गा रहे हैं 
पारिजातों की हिना कब से 
हथेली चुग रही है 
चाँद की चाँदी धरा की 
ज़िंदगी को चुभ रही है 
दिन कटे ही जा रहे हैं 
गान अपना गा रहे हैं 
शिंजिनी छुन-छुन रसीले 
मोह में जकड़ी पड़ी है 
भैरवी शिव की जटा से 
तृप्त हो स्वर्णिम बनी है 
स्वर व्यवस्थित भा रहे हैं 
गान अपना गा रहे हैं ।
-ममता शर्मा
 
 
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