शायद अबकी देकर जाए
घर घर रोटी-दाल
आनेवाला साल
झोंपड़ियों में आकर बैठें
टेबुल और दिवान,
हर निरीहता को मिल जाए
कपड़ा और मकान,
प्रजातंत्र के घर घर आंगन
खुशियों का हो थाल
आसमान पर बादल सँवरे
खाकर मगही पान,
खेतों की क्यारी क्यारी हो
बाली का दिनमान,
मंजरियों से हो अनुरंजित
आमों की हर डाल
नदियों से हो दूर प्रदूषण
बहे झलाझल नीर,
भेदभाव का रोग भगाएँ
तुलसी और कबीर,
मेलजोज की नौकाओं पर
सुख का फहरे पाल
नवगीतों की कालोनी में
हो साहित्य का गीत,
शब्दों के गगनांचल में हो
भाषा का संगीत,
बिछ जाए हर क्षितिज क्षितिज पर
संवेदन संजाल
-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
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